बच्चों को मूर्त रुप में खिलौने दिए जाते हैं और बच्चा मूर्त रुप खिलौनों की तरफ आकर्षित भी होता है । इसी को देखते हुए शिक्षा प्रणाली में भी शुरु- शुरु में बच्चों को मूर्त रुप दिया गया। छाता का चित्र बनाकर "छ" सिखाया गया। घोड़ा का चित्र बनाकर "घ" सिखाया गया इत्यादि। जब बच्चा "छ" एवं "घ" को सीख जाता है तो छाता एवं घोड़ा के चित्र को छोड़ देता है क्योंकि छाता "छ" नहीं होता और घोड़ा "घ" नहीं होता। यानी सत्य जानने के बाद असत्य को छोड़ देता है। पर हम आध्यात्मिक बच्चे कभी भी असत्य से सत्य बाहर नहीं निकाल पाते। सत्य-असत्य दोनों को ही साथ-साथ पकड़े रहना चाहते हैं। अतः हम जीवन भर बच्चे ही बने रहते हैं। कभी जवान नहीं हो पाते। यही सबसे बड़ा दु:ख का कारण है। इस सत्य-असत्य के बीच बड़े-बड़े धर्मगुरु भी फँसे हुए दिखते हैं। नंग-धिडंग साधु तथा आत्मदर्शी गुरु बुलेटप्रूफ में घुसकर निर्भीकता का संदेश देते हैं, आत्मदर्शन से होने वाली उपलब्धि की बात करते हैं। क्या ऐसे प्रमाण को देख समाज भ्रमित नहीं होगा? एक बार नानक साहब एक नीम के वृक्ष ...