माया "मैं" से बना है। जहाँ "मैं" रहेगा माया रहेगी। अगर माया से हटना चाहते हो तो "मैं" से हटना होगा। माया से हटकर एक ही शक्ति है "ईश-शक्ति"। अगर आप "ईश" में मिल जाएँगे तो माया नहीं लगेगी। पर "ईश-शक्ति" को कभी भी माया के लपेटे में आना पड़ता है तभी वह ईश्वर बनती है। इसके लिए वह वर ढूँढती है। कैसा वर? तो मायावी वर ताकि वह कह सके कि मैं हूँ। मेरा कोई अस्तित्व है। माया से हटकर "ईश-शक्ति" भी कोई काम नहीं कर सकती।" ईश-शक्ति" माया के बगैर शुद्ध एवं सात्विक है लेकिन बेकार है। माया दो प्रकार की है:-
1) तमोगुणी माया
2) सतोगुण माया
अक्सर माया शब्द का प्रयोग तमोगुणी माया के लिए ही होता है क्योंकि यही माया हमें बाँधती है, छोटा करती है, संकीर्ण बनाती है। यह माया ठीक वैसी ही है जैसे फैला हुआ जल सिकुड़ कर बर्फ का रुप ले लेता है। बर्फ जल का ही अंश है पर् संकीर्ण बन चुका है। इस तरह हम तमोगुण माया से छोटे होते चले जाते हैं, संकीर्ण होते चले जाते हैं।
सतोगुणी माया के प्रभाव में हम छोटा से बड़ा बनने लगते हैं। इस माया में फैलाव है, प्यार है, एक अनुशासन है जो हमें फैलने के लिए बाध्य कर देती है। यह माया बुरी नहीं है। अगर इस माया को हटा दिया जाए तो आप काम नहीं कर पाएँगे। अगर आप इस बात को समझ गए कि कौन सी माया हमारा अनिष्ट करने वाली है और कौन सी माया हमारा मदद करने वाली है तो आप कभी भी माया से नफरत नहीं करेंगे। सतोगुणी माया हमेशा तुम्हें सही दिशा में ले चलेगी। जितने भी भगवान बने हैं जो सृजन करने वाले हैं वह सभी के सभी सतोगुण माया के स्वरुप हैं। इसीलिए हम इन्हें अपने जीवन से जोडते हैं।
ओम शांति

गुरुदेव के चरणों में सादर नमन ।। सतोगुणी माया के बारे में जानने की उत्कंठा है । याचना है प्रभु... इसके कुछ उदाहरण पर प्रकाश डाला जाय।
ReplyDelete🙏🙏💐💐💐💐🙏🙏
ReplyDelete