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सत्य-असत्य के बीच फँसा मानव

  बच्चों को मूर्त रुप में खिलौने दिए जाते हैं और बच्चा मूर्त रुप खिलौनों की तरफ आकर्षित भी होता है । इसी को देखते हुए शिक्षा प्रणाली में भी शुरु- शुरु में बच्चों को मूर्त रुप दिया गया। छाता का चित्र बनाकर "छ" सिखाया गया। घोड़ा का चित्र बनाकर "घ" सिखाया गया इत्यादि। जब बच्चा "छ" एवं "घ" को सीख जाता है तो छाता एवं घोड़ा के चित्र को छोड़ देता है क्योंकि छाता "छ" नहीं होता और घोड़ा "घ" नहीं होता। यानी सत्य जानने के बाद असत्य को छोड़ देता है। पर हम आध्यात्मिक बच्चे कभी भी असत्य से सत्य बाहर नहीं निकाल पाते। सत्य-असत्य दोनों को ही साथ-साथ पकड़े रहना चाहते हैं। अतः हम जीवन भर बच्चे ही बने रहते हैं। कभी जवान नहीं हो पाते। यही सबसे बड़ा दु:ख का कारण है। इस सत्य-असत्य के बीच बड़े-बड़े धर्मगुरु भी फँसे हुए दिखते हैं। नंग-धिडंग साधु तथा आत्मदर्शी गुरु बुलेटप्रूफ में घुसकर निर्भीकता का संदेश देते हैं, आत्मदर्शन से होने वाली उपलब्धि की बात करते हैं। क्या ऐसे प्रमाण को देख समाज भ्रमित नहीं होगा?        एक बार नानक साहब एक नीम के वृक्ष ...
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एकत्व की साधना

         (इंदौर भंडारे में पूज्य गुरुदेव परमहंस स्वामीनन्द जी महाराज द्वारा दिनांक 23/03/2019 को दिया गया संदेश)         सम्सतबरेज एक बहुत बड़े फकीर हुए। उनके बारे में कहा जाता है कि वह हर वक्त खुदा में लय रहते थे। उनकी लयता ऐसी थी मानो जो खुदा है वही वह हैं और जो वह हैं वही खुदा है। इसी को एकत्व भी कहते हैं यानी अद्वैत हो जाना। यही हम मानवों का लक्ष्य है। यहाँ आने के बाद ही धर्म शास्त्रों में जो कुछ भी कहा गया है वह घटित होने लगता है। जैसे:- जो चाहोगे वही होगा। अगर असत्य भी करोगे तो वह सत्य हो जाएगा। इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए एक ही केंद्र होना चाहिए, एक ही भगवान होना चाहिए, एक ही गुरु होना चाहिए ताकि एक रिश्ता का व्रत पालन हो सके। इसी व्रत का पालन किया था सम्सतरवेज ने जिसके वजह से वह सदा मस्त रहा करते थे। देखने से ऐसा प्रतीत होता मानो वह आनंद में डूबे जा रहे हैं। कोई देखता तो कहता यह अवधूत है, पागल है। अक्सर ऐसी अवस्था में अपना ध्यान नहीं रहता। जहाँ अपना ध्यान नहीं रहता परमात्मा हमेशा उसकी देखभाल किया करता है। सम्सतरवेज जि...

सदा श्रेष्ठ विधियों को ही अपनायें

         जो साधना विधि हमारे चरित्र परिवर्तन, विचार परिवर्तन, सोच परिवर्तन में सहायक नहीं होता वह  हमारे लिए हितकर नहीं हो सकता। आज समाज के सामने एक बहुत बड़ा प्रश्न खड़ा है। देश में पूजा- पाठ काफी बढ़ रहा है, सत्संग की बड़ी-बड़ी सभाएँ हो रही हैं, बड़ी-बड़ी संस्थाएँ सुधार कार्य कर रही हैं फिर भी मानवीय सुधार क्यों नहीं हो रहा है? इसका कारण है:-कई छोटी मोटी विधियाँ जो छोटे-मोटे कार्य को संपन्न कराने में लगी हैं जहाँ चरित्र परिवर्तन या सोच परिवर्तन माने नहीं रखता। अगर यह बातें सुन लें तो पूछेंगे कि हमारे चरित्र में क्या हुआ है? वह सोचेंगे कि वक्ता का मस्तिष्क कुछ ढीला हो गया है। वह नशे में अनाप-शनाप बकता जा रहा है। कुछ लोग हँसकर चले जाएँगे क्योंकि वह कुछ समझ ही नहीं पाए। हमारे यहाँ 80% ऐसी ही संस्थाएँ हैं जिनके पूर्वजों की विधि-व्यवस्था सब कुछ ऊँची रही है परंतु आज वह भी सांसारिक प्रलोभन की भूमि पर खड़े होकर बड़ी भारी भीड़ लगाए हुए हैं। कुछ लोग जगत को सुधारने के लिए बाहर दीए जलाते हैं परंतु अंदर के दीपक को जलाने की व्यवस्था नहीं करते। पूछने पर कहते ...

माया क्या हैं?

          माया "मैं" से बना है। जहाँ "मैं" रहेगा माया रहेगी। अगर माया से हटना चाहते हो तो "मैं" से हटना होगा। माया से हटकर एक ही शक्ति है "ईश-शक्ति"। अगर आप "ईश" में मिल जाएँगे तो माया नहीं लगेगी। पर "ईश-शक्ति" को कभी भी माया के लपेटे में आना पड़ता है तभी वह ईश्वर बनती है। इसके लिए वह वर ढूँढती है। कैसा वर? तो मायावी वर ताकि वह कह सके कि मैं हूँ। मेरा कोई अस्तित्व है। माया से हटकर "ईश-शक्ति" भी कोई काम नहीं कर सकती।" ईश-शक्ति" माया के बगैर शुद्ध एवं सात्विक है लेकिन बेकार है। माया दो प्रकार की है:- 1) तमोगुणी माया  2) सतोगुण माया      अक्सर माया शब्द का प्रयोग  तमोगुणी माया के लिए ही होता है क्योंकि यही माया हमें बाँधती है, छोटा करती है, संकीर्ण बनाती है। यह माया ठीक वैसी ही है जैसे फैला हुआ जल सिकुड़ कर बर्फ का रुप ले लेता है। बर्फ जल का ही अंश है पर् संकीर्ण बन चुका है। इस तरह हम तमोगुण माया से छोटे होते चले जाते हैं, संकीर्ण होते चले जाते हैं।      सतोगुणी माया के प्रभाव में हम छोटा से बड़ा बनन...