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सदा श्रेष्ठ विधियों को ही अपनायें

 
     


 जो साधना विधि हमारे चरित्र परिवर्तन, विचार परिवर्तन, सोच परिवर्तन में सहायक नहीं होता वह  हमारे लिए हितकर नहीं हो सकता। आज समाज के सामने एक बहुत बड़ा प्रश्न खड़ा है। देश में पूजा- पाठ काफी बढ़ रहा है, सत्संग की बड़ी-बड़ी सभाएँ हो रही हैं, बड़ी-बड़ी संस्थाएँ सुधार कार्य कर रही हैं फिर भी मानवीय सुधार क्यों नहीं हो रहा है? इसका कारण है:-कई छोटी मोटी विधियाँ जो छोटे-मोटे कार्य को संपन्न कराने में लगी हैं जहाँ चरित्र परिवर्तन या सोच परिवर्तन माने नहीं रखता। अगर यह बातें सुन लें तो पूछेंगे कि हमारे चरित्र में क्या हुआ है? वह सोचेंगे कि वक्ता का मस्तिष्क कुछ ढीला हो गया है। वह नशे में अनाप-शनाप बकता जा रहा है। कुछ लोग हँसकर चले जाएँगे क्योंकि वह कुछ समझ ही नहीं पाए। हमारे यहाँ 80% ऐसी ही संस्थाएँ हैं जिनके पूर्वजों की विधि-व्यवस्था सब कुछ ऊँची रही है परंतु आज वह भी सांसारिक प्रलोभन की भूमि पर खड़े होकर बड़ी भारी भीड़ लगाए हुए हैं। कुछ लोग जगत को सुधारने के लिए बाहर दीए जलाते हैं परंतु अंदर के दीपक को जलाने की व्यवस्था नहीं करते। पूछने पर कहते हैं कि हमें फुर्सत नहीं है ध्यान साधना करने की। हमारे लिए हमारी पत्नियाँ कार्य कर देती हैं।
आइए अब हम चलते हैं उन श्रेष्ठ विधियों की तरफ जिससे मानव चरित्र का  निर्माण तो होता ही है साथ ही साथ हमें ईश्वर की भी उपलब्धि होती है।
प्रथम विधि:- इस विधि में सबसे पहले अपने इष्ट का चुनाव साधक को स्वयं करना होता है। वह किसी भी भगवान के स्वरुप जिस पर श्रद्धा रखता है या किसी सद्गुरु का चुनाव कर सकता है जिसका ध्यान करना है। इष्ट का ध्यान करने से इष्ट के सारे गुण साधक में उतरने लगते हैं। अतः साधना बहुत ही आसान हो जाती है। लेकिन इसके संबंध में कुछ विशेष बातें ध्यान रखने योग्य हैं:-
1) ईष्ठ साकार हो।
2) ईष्ठ वर्तमान में हो।
3) ईष्ट वितराग हो।
दूसरी विधि:-  सद्गुरु, साधक के प्रकृति, उम्र तथा स्त्री-पुरुष के भेद का ख्याल रखते हुए एक विशेष मंत्र का चयन करते हैैं तथा उसे एक्टिवेट करते हैं और फिर मंत्र दीक्षा देकर उसकी कुंडलिनी को जागृत कर देते हैं। ऐसे में साधक के अंदर सोई हुई तथा छिपी हुई शक्तियाँ उठकर अनुभव में आने लगती हैं और भिन्न-भिन्न शांतिदायक अनुभव होने लगते हैं। इस तरह एक साधक सद्गुरु की संगति पाकर 20 वर्ष आगे हो जाता है। अब वह हर समय डूबा रहना चाहता है। उसे लगता है कि मेरे जीवन में जादू हो गया। अब वह सबसे अलग थलग होकर रहने लगता है।
 गुरु की अनदेखी करने से, गुरु को धोखा देने से या गुरु द्वारा बताई गई साधना से अनियमितता बरतने से धीरे-धीरे उसकी कुंडलिनी शक्ति गिरने लगती है और फिर एक दिन वह जहाँ था वहीं लौट जाता है। उसके जीवन में दुनिया की ठोकरें ही रह जाती हैं। 
         अगर गुरु के साथ अच्छे रिश्ते बने रहे तो गुरु आगे चलकर उसे दूसरी, तीसरी दीक्षा देकर ऊँचाइयों पर पहुँचा देता है। यह क्रिया ठीक वैसे ही होती है जैसे एक किसान अपने खेतों में किसानी लगातार करते रहता है तो भूमि नरम तथा सरस बनी रहती है। उस भूमि पर बड़ी आराम से फसलें फूलती-फलती हैं। चारों तरफ हरियाली ही हरियाली बनी रहती है। किसान जब किसानी कुछ दिनों के लिए बंद कर देता है तो भूमि कठोर हो जाती है। वह कठोरता ही भूमि का अहंकार है। अहंकारी भूमि पर पौधे विकसित नहीं होते। अतः पुनः सिंचाई और जोताई की जरुरत पड़ती है। कभी-कभी कुशल किसान के अभाव में ऐसे अहंकार युक्त भूमि पर भी हरियाली देखने को मिलती है पर वह हरियाली जैसे तैसे होती है जहाँ सिर्फ कांटेदार झाड़ियाँ और विषैले सांप, बिच्छू का बसेरा मिलता है।
  वैसे भूमि के अंदर भी  सरसता है पर ऊपरी सतह से बहुत ज्यादा नीचे चली गई होती है जिसे ऊपर व्यवहार में नहीं लाया जा सकता। भूमि के ऊपर सरसता लाने के 2 तरीके दो तरीके हैं:-
1) खेत का संबंध किसी ने तालाब, पोखर या किसी जलाशय से जोड़ दिया जाए ताकि उसका जल हमारे खेतों में समय-समय पर मिलता रहे।
2) खेत में बोरिंग करके खेत का संबंध खेत के निचले सत्ता (जलस्रोत) से जोड़ दिया जाए ताकि ऊपर की भूमि  व्यवहारिक तथा सरस  बन सके। पर इसके लिए एक कुशल किसान की जरुरत पड़ती है क्योंकि खेत स्वयं इस जल स्रोत को ऊपर नहीं ला सकता। यहाँ कुशल किसान ही अध्यात्म की भाषा में सद्गुरु है।
       सद्गुरु गुरुभक्ति के पथ पर चलने वाले साधकों को विधि नंबर 1 द्वारा उनकी भक्ति पथ को विकसित करता है। भक्तों के लिए भगवान, संत-महात्मा या एक सद्गुरु भक्ति के जलाशय  होते हैं। इनसे भक्ति का जल लेकर भक्त अपने भक्ति को विकसित करते हैं। 
 जिनमें भगवान के भाव में कमी रहती है उनको अपने योग मंत्रों द्वारा बोरिंग कर उसके कुण्डलिनी की धार को ऊपर की तरफ मोड़ देते हैं और उसका सुखा हुआ भाव सरस हो जाता है और श्रद्धा एवं विश्वास बढ़ जाता है।
       यहाँ सांसारिक जरुरतों को पूरा करने की शर्त नहीं रखी जाती है कि यहाँ आने से या मिलने से नौकरी लग जाएगी, पुत्र पैदा हो जाएगा, मुकदमा जीत जाएंगे, धन की प्राप्ति हो जाएगी अथवा रोग से छुटकारा हो जाएगा। इन श्रेष्ठ विधियों का लक्ष्य है "सुख और शांति"। साधना की उपलब्धि शांति है और चरित्र का निर्माण ही शांति की दिशा है। शांति के बगैर कोई नहीं जी सकता। यह विभिन्न रास्तों से प्राप्त होती है। जैसे भीड़ ने फंसा व्यक्ति जब भीड़ से हटता है तो शांति महसूस करता है, कोई भूखा-प्यासा व्यक्ति भोजन करने के बाद शांति महसूस करता है परंतु हमारे चारित्रिक दुर्गुणों के कारण शांति का रिसाव होते रहता है। ठीक वैसे ही जैसे छिद्रयुक्त बाल्टी में बाल्टी भर दूध दुहा जाए तो थोड़ी देर के बाद देखने से पता चलता है कि लाख दुहने पर भी बाल्टी भरा नहीं। छिद्रों से रिसकर दुध बाहर निकल गया। ठीक ऐसे ही मनुष्य के चरित्र में शांति को मिटाने वाले दुर्गुण काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार हैं जिनके द्वारा व्यक्ति की शांति लिक करते रहती है। श्रेष्ठ विधियों से साधना करने पर यह छिद्र बंद हो जाते हैं। अब 'ईश शक्ति' का संचयन एवं संग्रह होने लगता है। इससे सत्य का ज्ञान होता है और परिणाम स्वरुप जीवन में शांति आती है। अब यह शांति कभी नष्ट नहीं होती। 
          अशांत व्यक्ति ही अज्ञानी होता है और अज्ञानी के चरित्र की मोहानी हमेशा खुली रहती है। इसमें अगर कोई अच्छी चीज आ भी जाए तो वह तुरंत गायब हो जाती है जिससे वह अपना ही कल्याण नहीं कर पाता फिर दूसरों का कल्याण क्या करेगा? बहुत सारी रोग-व्याधियाँ तथा विपत्तियाँ व्यक्ति के चरित्र में विषमता से उत्पन्न होती हैं। जो चरित्र निर्माण करने वाली विधियों से चलते हैं वही संकटों से छुटकारा पाते हैं तथा अंत में ज्ञान प्राप्त कर शांति के प्रदेश में पहुँचकर सदा-सदा के लिए दु:खों से मुक्त हो जाते हैं। एक अज्ञानी मनुष्य  उस बच्चे की तरह होता है जो पखाना कर अपने हाथों से अपने विभिन्न अंगों में लगाकर खुश होकर खेलता रहता है। अगर कोई उसे बलपूर्वक हटाए तो रोने लगता है क्योंकि उसे वही खेल अच्छा लगता है। जब उसे ज्ञान होता है तो स्वयं ही वह ऐसा नहीं करता। 
       श्रेष्ठ विधियाँ हमें अज्ञान की भूमि से हटाकर ज्ञान की भूमि पर लाकर खड़ा कर देती हैं जिससे वस्तुओं के भोग का आनंद तो मिलता ही रहता है साथ ही साथ वस्तु से बंधने वाला दु:ख भी उसे नहीं लगता। वस्तु के लिए उसमें प्रतिबद्धता रहती ही नहीं है अत: दुख की अनुभूति जाती रहती है। कितना फर्क पड़ जाता है लक्ष्य को 

                        ओम शांति

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